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मेरी मोहब्बत को समझते हो तुम ग़लत, ग़लत नहीं है/ विनय प्रजापति 'नज़र'
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लेखन वर्ष: २००४/२०११
मेरी मोहब्बत को समझते हो तुम ग़लत, ग़लत नहीं है
तुमको चाहा है मैंने गर इसमें कुछ ग़लत नहीं है
दिखा दो तुम कोई अपना-सा इस ज़माने में मुझको
मैं अगर फिर चाह लूँ उसको इसमें कुछ ग़लत नहीं है
मेरे दिल को सुकून आया है तेरी सूरत देखकर
यूँ किसी चेहरे से सुकूनो-सबात कुछ ग़लत नहीं है
जो मैंने देखा तेरी आँखों में वो तुझे मालूम है
मोहब्बत की नज़र से तुझे देखना कुछ ग़लत नहीं है
डरते हो तुम अपने-आप से या फिर यूँ ही किया सब
पहले प्यार में दिल का उलझ जाना कुछ ग़लत नहीं है