भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मैं तुम्हें संसारान्त से लिख रहा हूँ / हेनरी मीशॉ

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:41, 25 नवम्बर 2008 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हेनरी मीशॉ |संग्रह= }} <Poem> मैं तुम्हें संसारान्त ...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैं तुम्हें संसारान्त से लिख रहा हूँ।
तुम्हें यह समझ लेना चाहिए।
पेड़ अक्सर काँपते हैं।
हम पत्तियां चुनते।
शिराओं की हास्यास्पद संख्या है उनके पास।
लेकिन किसलिए?
पेड़ और उनके बीच वहाँ कुछ नहीं बचा,
और हम प्रस्थान करते मुश्किलाये।

बिना हवा के क्या जारी नहीं रह सकता था पृथ्वी पर जीवन?
या सब कुछ को कँपना है, हमेशा, हमेशा?

ज़मीन के भीतर विक्षोभ है वहाँ, घर में भी,
जैसे अंगारें जो आ सकते हैं तुम्हारा सामना करने,
जैसे कड़े प्राणी जो चाहते स्वीकारोक्तियों को बिगाड़ना।
हम कुछ नहीं देखते,
सिवाय उसके जिसे देखना है गैरज़रूरी.
कुछ नहीं, और तब भी हम कँपते। क्यॊ?

कुछ नहीं, और तब भी हम कँपते। क्यों ?


अंग्रेज़ी से भाषान्तर : पीयूष दईया