भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मैं व्यस्त हूँ / लीना मल्होत्रा

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:12, 13 जून 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=लीना मल्होत्रा |संग्रह= }} {{KKCatKavita‎}} <Poem> दिनचर्या के …)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

दिनचर्या के कई इतिहास रचती हूँ मैं
खाना पकाती,
रोटी फुलाती, परचून से सौदा लाती,
बस में दफ़्तर जाती
क्या तुम जानते हो
ठीक उसी समय
फूल कर कुप्पा हुई एक रोटी रतजगा करती है प्रतीक्षा में
बासी होने तक

घर का बुहारा हुआ सबसे सफ़ेदपोश कोना
वसंत के रंग बसाता है पतझड़ आने तक,

वह बस, जिसमे मै अकेली हूँ
और तुम्हे अपने मानस-पटल से निकाल कर बैठा लिया है मैंने बगल वाली सीट पर,
उसी बस में भूल आई हूँ मैं तुम्हें
और मुझे नहीं मालूम कि उस बस का आख़िरी स्टॉप कौनसा है ।

ठीक उसी समय
कल्पनाओं से बेदख़ल हुए वीतरागी पतझड़ के सूखे हुए पत्ते,
दूर तक उड़ते हुए उस बस का पीछा करते है,

विचित्रताओं से भरी हुई इस दुनिया में
जब तुम्हारी खिड़की पर पौ फटती है
और तुम सुबह की पहली चाय पीते हो
तो अख़बार की कोई ख़बर पढ़ कर तुम्हे ऐसा लगता है की इस दुनिया में सब कुछ संभव है
कि
अचानक किसी मोड़ पर तुम मुझसे टकरा भी सकते हो
क्या तुम ज़ोर से रिहर्सल करते हो
अपने प्रश्न की
कैसी हो तुम ?

क्या तुम जानते हो
एक अरसे से बंदी हो तुम मेरे मन में
और साँस लेने के लिए भी तुम्हे मेरी इजाज़त लेनी पड़ती है
और जब कभी
मुझे लगता है कि
तुम इस घुटन में कहीं मर तो नहीं गए
तो मै घबरा कर अचकचा के उठती हूँ
तब मेरे बच्चे मुझे कितनी हैरत से देखते हैं ।

अपने व्यस्ततम क्षणों में
जब मै दिनचर्या के कई इतिहास रचती हूँ
कपड़े धोती हूँ
इस्त्री करती हूँ
बच्चों को स्कूल छोड़ने जाती हूँ
और वह सब उपक्रम करती हूँ
जो हम तब करते हैं
जब करने को कुछ नहीं होता
तब आकाश का चितेरा पूरी मशक्कत करता है
कि
महाशून्य में डोलती यह धरती
कहीं सरक न जाए उसके आगोश से ।