भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मौलिकता की ठेकेदारी / कृष्ण मुरारी पहरिया

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 01:20, 16 मई 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कृष्ण मुरारी पहरिया |अनुवादक= |सं...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मौलिकता की ठेकेदारी
मौलिक हुए नहीं
राख बटोरी झोली भर ली
शोले छुए नहीं

कहीं किसी को उठते देखा
डंक मार आए
कहीं किसी को खिलते देखा
फन काढ़ आए
कभी दवा-दारू की बून्दें
बनकर चुए नहीं

बैठे गातें हैं प्रशस्तियाँ
इसकी या उसकी
घिसे - पिटे कुछ शब्द चुन लिए
छोंड़ रहें हैं मुस्की
ये अन्धे गडहे कविता के
मीठे कुएँ नहीं

मौलिकता की ठेकेदारी
मौलिक हुए नहीं