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यही पहचान उपवन की / प्रेमलता त्रिपाठी

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विलासी हो गया जीवन न चिंता हो रही तन की ।
सताती व्याधियाँ हम को सुनेगा कौन फिर मन की ।

रुदन क्रंदन करें वे ही विरोधी भावना लेकर,
निहित है स्वार्थ उसमें भी भलाई है नहीं जन की ।

उठेगा शीश उन्नत हो जहाँ तृष्णा नहीं यदि हो,
बसे संतोष अंतस में न इच्छा हो किसी धन की ।

न खोना व्यर्थ है इक पल अभी गंतव्य तक जाना,
नयी आशा लगन बनकर मिलेगी जीत जीवन की ।

विवशता क्यों हमें घेरे बहे आँसू हृदय हारे,
खिला है प्रेम पंकज जो यही पहचान उपवन की ।