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यादों की चील / मधु शुक्ला

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लम्हा- लम्हा गुज़रता रहा वक़्त
बनाता हुआ फ़ासले
हमारे दरमियाँ
और हम देखते रहे
बने हुए बुत
उम्मीदों को टूटते
आशाओं को छूटते
तार- तार होते भावनाओं को, आहत होते
उधेड़ते हुए आस्थाओं को परत-दर-परत ।

ख़ामोशी के साये में
धुँधलाते रहे चाहत के दीये
खिंचते गए हमारे बीच अहम के हाशिये
बदल गईं प्रेम की परिभाषाएँ, रिश्तों के अर्थ
मौन से बँधी रहीं मेरी विवशताएँ और तुम्हारा दर्प
तुम्हारी शर्तों के दायरे में सिमटते - सिमटते
ठूँठ हो गए हैं सपनों के दरख़्त ।

अब नहीं भरते उड़ान इस ओर
कल्पनाओं के रंग - बिरंगे पंछी
नहीं फुदकती इन शाखाओं में
उमंगों की चंचल गिलहरियाँ
पीठ पर लिए उँगलियों के निशान
दिख जाती बैठी, बस,
यादों की चील
घूरती हुई
घुप्प सन्नाटों में
कभी - कभी यों ही वक़्त - बेवक़्त ।
लम्हा- लम्हा गुज़रता रहा वक़्त ।
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