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रहता हूँ, मगर शहर में आबाद नहीं हूँ / उपेन्द्र कुमार
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रहता हूँ, मगर शहर में आबाद नहीं हूँ
बेचैन हूँ, बेहाल हूँ, बर्बाद नहीं हूँ
ज़ंजीर कहीं कोई दिखाई नहीं देती
उड़ने के लिए फिर भी मैं आज़ाद नहीं हूँ
नाकरदा गुनाहों की सजा भोग रहा हूँ
भगवान जिसे सुन ले वो फरियाद नहीं हूँ
मंज़िल के पास आके ही भटका हूँ हमेशा
कहते हैं लोग फिर भी मैं नाशाद नहीं हूँ
उसकी ही मुहब्बत में कटी उम्र, पर अफ़सोस
चाहा है जिसे जी से उसे याद नहीं हूँ।