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रूके न जब तक साँस / गोपालदास "नीरज"

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रुके न जब तक साँस, न पथ पर रुकना थके बटोही।

साँसों से पहले ही जो पंथी पथ पर रुक जाता
जग की नज़रों में कायर वह जीकर भी मर जाता
चलते-चलते ही जो मिट जाता है किन्तु डगर पर
उसके पथ की खाक विश्व मस्तक पर सदा चढ़ाता
पथ पर साँसों की गति से है मूल्य अधिक पग-गति का
पग के छालों से पथ पर यह लिखना थके बटोही।
रुके न जब तक साँस, न पथ पर रुकना थके बटोही।
 
अगणित कठिन पहाड़ नदी की राह रोकने आते
पर उसकी गति के सम्मुख सब चूर-चूर हो जाते
चलना ही, बढ़ना ही जिसके जीवन का व्रत-प्रण है
जग भर के तूफ़ान प्रलय-घन उसको रोक न पाते
साँसों की गति से, पग-गति से अधिक प्रबल गति मन की
पग-गति में मन की गति भर कर चलना थके बटोही।
रुके न जब तक साँस, न पथ पर रुकना थके बटोही।

जीवन क्या- माटी के तन में केवल गति भर देना
और मृत्यु क्या- उस गति को ही क्षण भर यति कर देना
गति-यति के जो बीच किन्तु है एक वस्तु अन्जानी
वही मनुज के हार-जीत के क्रम की अमिट निशानी
यही निशानी पथ पर जिससे जीत बनी मुस्काए
मुस्काकर स्वागत शूलों का करना थके बटोही।
रुके न जब तक साँस, न पथ पर रुकना थके बटोही।