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लन्दन डायरी-2 / नीलाभ

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इस सुनहरी धूप में
पिघलता है
मेरा ख़ून
डूबते सूरज में
ढलता है
मेरा रक्त
बूँद-बूँद कर
जाते हुए ग्रीष्म की
गहरी हरियाली में
धधकती है लपटें
सुलगते हैं दिन
अपने धुएँ से
मेरी आँखों को कड़वाते हुए

मेरे गिर्द उनींदी रातों का अम्बार है
जिन्हें गिनना मेरी ताकत के पार है
ये उनींदी रातें
बेरोज़गारी के आँकड़े हैं
जिन्हें केन लिविंग्स्टन
हर महीने ग्रेटर लण्डन काउन्सिल की
इमारत पर
थैचर सरकार की सूचना के लिए
टाँग देता है

ये उनींदी रातें
वित्त मन्त्री जेफ्री हाओ के
बजट की मँडराती छायाएँ हैं
धीरे-धीरे शुक्रवार की शाम के
पे-पैकेट पर घिरती हुई

ये उनींदी रातें
फगवाड़े में
मेरा इन्तज़ार करती माँ
या जमेका में छूटी
आबनूस की वीनस के
चेहरे हैं
रात के सन्नाटे में घिरते हुए
जब दिन की तमाम हरकतें
टूटते हुए जिस्म की
तकलीफ़ में
तब्दील होती हैं
दर्द की उठती और गिरती लहरों के बीच
दिन की विजय और पराजय का
लेखा-जोखा करते हुए
मैं पलटता हूँ
वर्क-दर-वर्क
ज़िन्दगी के पन्ने
उनींदी रातों में

ये राते उतनी ही काली हैं
जितना मेरे जिस्म का रंग

यह उन्नीस सौ अस्सी का साल है
लन्दन में बेरोज़गारी डेढ़ लाख तक पहुँच गयी है
मगर अमरीका में गेहूं के व्यापारियों को
रेगन की राहत मिली है
ईरान में जंग छिड़ गयी है
लेकिन तेल पर दिनों-दिन धार चढ़ रही है
पोलैण्ड में लोग
गोश्त की लड़ाई लड़ रहे हैं
इधर ब्रिटेन में कारखाने बन्द हो रहे हैं
बेरूत में इस्राइली
अराफ़ात के लिए खेदा तैयार कर रहे हैं
और हिन्दुस्तान में श्रीमती गाँधी
’सरकार जो काम करे’ का नारा लगा कर
सत्ता में लौटी है

लेकिन मैं लौट नहीं सकता
आज ही मेरे भतीजे की चिट्ठी आयी है
जिसमें उसने विलायत आने की
फ़रियाद दुहराई है

वह साल भर से बेकार है
और हमारी ज़मीन
जिसने जाने कितने
हमलावरों के कदम सहे हैं
अब एक और कम्मी का बोझ
नहीं सह सकती

जमेका से लिखती है
मेरी आबनूस की वीनस
वह अब बहुत देर
इन्तज़ार नहीं कर सकती
उसका भाई गाँजा पीते हुए
धर लिया गया है
बाप ने कर ली है दूसरी औरत
और पुलिस उसे रण्डी बनाने पर
उतारू हैं
उसे रात को नींद नहीं आती

उनींदी रातों का संसार
सिर्फ़ मेरा नहीं
किंग्स क्रॉस से
साउथॉल तक
जमेका से जगाधरी तक
एक ही तार है
उनींदी रातों का
एक ही संसार है
जिसे नापना मेरी ताकत के पार है

’तुम्हें क्या कहूँ कि क्या है
शबे ग़म बुरी बला है।’