भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

वह लड़ती रही / कविता भट्ट

Kavita Kosh से
वीरबाला (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:05, 11 मई 2022 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

                                                                                                     
  वह लड़ती रही
अकेले ही, कठिन राहों के
धूर्त्त पत्थरों से।
धूप उसे भी झुलसाती रही
कोई भी वृक्ष दूर तक नहीं था
जो छाया दे सके
दुरूह पहाड़ी रास्ते पर
अथाह पीड़ा को प्रायः
विजयी मुस्कान से ढक लेती थी
तथाकथित सभ्यता के श्वेतवर्ण
उसे देखना चाहते थे
अपने समक्ष गिड़गिड़ाते हुए
ताकि उनका अहं कुलाँचें भर सके
किंतु, वह कभी रोई - गिड़गिड़ाई नहीं
इसीलिए उससे किसी को -
समानुभूति तो दूर,
सहानुभूति भी नहीं थी।