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वो आग हूँ के नहीं चैन एक आन मुझे / 'साक़ी' फ़ारुक़ी

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वो आग हूँ के नहीं चैन एक आन मुझे
जो दिन गया तो मिली रात की कमान मुझे

वो कौन है के जिस आसमाँ में ढूँढता हूँ
पलट के देखता क्यूँ है ये आसमान मुझे

ये कैसी बात हुई है के देख कर ख़ुश है
वो आँसुओं के समंदर के दरमियान मुझे

यहीं पे छोड़ गया था उसे यहीं होगा
सुकूत-ए-ख़्वाब है आवाज़ का निशान मुझे

वो मुंतक़िम हूँ के शोलों का खेल खेलता हूँ
मेरी कमीनगी देती है दास्तान मुझे

मैं अपनी आँखों से अपना ज़वाल देखता हूँ
मैं बे-वफ़ा हूँ मगर बे-ख़बर न जान मुझे