भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सत्यासत्य / अमरेन्द्र
Kavita Kosh से
Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 09:23, 23 मार्च 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अमरेन्द्र |अनुवादक= |संग्रह=साध...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
कितनी सुन्दर सृष्टि प्रकट यह, कितना सुन्दर लोक
लाखों लाख करोड़ों वर्षों के श्रम-दुख का पुण्य
किसी एक इच्छा के कारण भरा नहीं था शून्य
सबकी खुशियों, हर्ष, मोह के लिए बना यह ओक ।
फिर तो इस पर किसी एक का कैसे है अधिकार
अपने हित में इसे शूल की सूली पर लटकाए
उनका इक भी स्वार्थ मिटे ना, भले सृष्टि मिट जाए
इस पर भी जो देव कहाते, वे कितने लाचार ।
महिषासुर का मान बढ़ाने वाले, कुछ तो सोचो
सृष्टि पर तब स्वर्ग कहाँ से होगा, नरक दिखेगा
उसका भी वध निश्चित ही है, जो हथियार रचेगा
रौरव की जलती ज्वाला से अपना हृदय निकालो ।
सृष्टि बनेगी सुखमय-श्रीमय सबके सुख और श्रम से
कोई एक नियन्ता, इसका; उपजा यह मत भ्रम से ।