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सपना ही था पर सुंदर था / सुमित्रा कुमारी सिन्हा

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सपना ही था पर सुंदर था !

पाहन के पूजन के छल का आकार नहीं था, अंतर था !


शूलों बिंधकर गूँथी माला,

मधु स्नेह पिला दीपक बाला,

जलने में भी शीतल आहों का बिखरा मीठा-सा स्वर था !


थी एक लगन निर्माणों में,

था आत्म-समर्पण गानों में,

मिट जाने में भी तो जीवन के शुभ चिन्हों का ही वर था !


दिन फूलों से भी थे हल्के ,

निशि में अमृत के घट छलके,

इस मृग-तृष्णा में भी तो नव चेतनता का ही सागर था !


मूकता मुखर हो जाती थी,

विस्मृति में भी सुधि आती थी,

विश्वास-विहग के लघु पंखों के सम्मुख सारा अम्बर था !


सपना ही था पर सुन्दर था !