भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सफ़र पे आज वही कश्तियाँ निकलती हैं / वसीम बरेलवी

Kavita Kosh से
Abhishek Amber (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:36, 2 अक्टूबर 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=वसीम बरेलवी |अनुवादक= |संग्रह=मेर...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सफ़र पे आज वही कश्तियाँ निकलती हैं
जिन्हें ख़बर है हवाएं भी तेज़ चलती हैं

मेरी हयात से शायद वो मोड़ छूट गये
बग़ैर सम्तों के राहें जहां निकलती हैं

हमारे बारे में लिखना, तो बस यही लिखना
कहां की शमअ हैं किन महफ़िलों में जलती हैं

बहुत क़रीब हुए जा रहे हो, सोचो तो
कि इतनी कुरबतें जिस्मों से कब संभलती हैं

'वसीम' आओ, इन आंखों को ग़ौर से देखो
यही तो हैं जो मेरे फ़ैसले बदलते हैं।