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सफ़र में अकेले ही चलते रहे / रंजना वर्मा

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सफ़र में अकेले ही चलते रहे
कभी लड़खड़ाते सँभलते रहे

अँधेरा घना हो रहा था मगर
उजाले मुरादों के छलते रहे

रहे देखते राह उन की सदा
बचा के नज़र जो निकलते रहे

मसर्रत की डोली गुज़र ही गयी
खड़े सिर्फ हम हाथ मलते रहे

पुरानी कई चिट्ठियाँ थीं रखी
बहा अश्क़ उन से बहलते रहे

मिले डायरी में दबे फूल जो
उन्हें बेखुदी में मसलते रहे

ग़मे हिज्र में दम घुटा इस तरह
दिए की तरह रोज़ जलते रहे

उमीदों के रौशन दिए बुझ गये
शमा की तरह हम पिघलते रहे

लिखे होंठ से फूल पर गीत जो
गिरी बर्फ यूँ हर्फ़ गलते रहे