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साधक / महेन्द्र भटनागर

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व्यर्थ सकल आयोजन, बाधक !
इनसे न रुका है, न रुकेगा
निर्झर-सा बहता दृढ़ साधक !

पथ पर छायी है बीहड़ता,
युग-जीवन में हिम-सी जड़ता,
पर, पिघल सभी तो जाता है
साहस-ज्वाला का स्रोत अथक !

मन की चट्टानों के सम्मुख,
हो जाते हैं तूफ़ान विमुख,
सदा जला है, सदा जलेगा
मानवता का मंगल-दीपक !

है मनुज तुम्हारी जय निश्चित,
क्षण-क्षण की सिहरन अपराजित,
परिवर्तन में हो जाएगा
प्रतिक्रियाओं का जाल पृथक !
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