भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सुखद समय की हैं प्रतिध्वनियाँ / उर्मिल सत्यभूषण

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:33, 22 अक्टूबर 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=उर्मिल सत्यभूषण |अनुवादक= |संग्रह...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

खिड़की में से झांक रही हूँ
अंधियारे में देख रही हूँ
चम-चम करती उड़ी तितलियाँ
नहीं-नहीं रंगीन टोपियां
उछल रही है
तरण ताल में
तारावलियाँ या जल परियां
तैर रही हैं सोन मछरियां
छपक-छपाक गिरती पड़ती हैं
पद-प्रहार से फेन लहरियां
मस्त-मस्त और बेपरवाह
नन्हें-नन्हें परिधानों में
सज्जित गठित ये देहावलियाँ
नये जमाने की ये लड़कियाँ
तरण तारिणी, भयविनाशिनी
धरा गगन पर सम विहारणि
मुक्त मना ये पुलका वलियाँ
छूनेको आकाश मचलती
मस्त हवा में खिलती कलियां
अब न रुकेंगी, अब न झुकेंगी
ये तो हैं तूफानी नदियां
कोई रोके या टोकेगा
लज्जित या अपराधी होगा
और वो उसका फल भोगेगा
पट पट बोल के बतला देंगी
तेज़ जुबां की तीखी छुरियां
झूठे लांछन अब न सहेंगी
निर्भय होकर बात कहेंगी
हाथों में विश्वास की लाठी
पैरों में ले चलें बिजलियां।
सोन मछलियां हाथ न आवें
न कोई इनको खाने पायें
चुस्त दुरूस्त है, सावधान है
कैसे? किसको दे पटखनियां
भोली अब न रही हिरणियां
युग इनका है और ये युग की
चलेंगी अब इनकी मनमानी
इनकी बड़ी-बड़ी इच्छाएं
इनकी विकसित हैं प्रतिभायें
बुद्धि और सुंदरता से ये
मुट्ठी में कर लेंगी खुशियां
पंख लगे हैं इन्हें हवा के
मानें बदले शर्मो-हया के
धूम मची इनकी क्षमता की
चर्चा इनकी बुद्धिमता की
चारों ओर ये बढ़ती जायें
युग को देंगी नई दिशायें
और नया इतिहास लिखेंगी
बीते युग की भेड़-बकरियाँ
इन्हें छेड़ कर भूल न करना
नहीं समझना महज़ तितलियाँ
सुखद समय की ये प्रति ध्वनियाँ
नये युग की ये
नई लड़कियाँ।