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सुन लो मुखिया अब उधार का उजियारा मंज़ूर नहीं / हरेराम समीप

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सुन लो मुखिया अब उधार का उजियारा मंज़ूर नहीं
ऊँच नीच का हम पर थोपा अँधियारा मंजूर नहीं

खुदगर्ज़ो की सरकारें और न्यायालयसब बन्द करो
सत्ता होगी सिर्फ़ हमारी‚ हरकारा मंजूर नहीं

मेरी बस्ती दिल वालों की‚ सारे मिलकर एक रहें
बाँटे जाने की अब कोशिश दोबारा मंजूर नहीं

जैसा भी हूँ मैं हूँ पूरे जीवन की सामर्थ्य लिए
ये गलीज़ सम्बोधन मुझको ‘बेचारा’ मंजूर नहीं

राजनीति की हिंसक चालें जिसमेंचलती हों हर रोज़
बेशक मंदिर‚ मस्जिद हो या गुरुद्वारा, मंजूर नहीं

मैं ‘समीप’ हिन्दू हूँ पक्का‚ कह द जगसे ये लेकिन
शंख‚ मँजीरा‚ थाली वाला जयकारा मंज़ूर नहीं