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सौन्दर्यबोध / जय प्रकाश लीलवान

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आदमी पीटते हुए
पुलिस के डण्डे की चमक
और हमारे बुजुर्गों के
मेहनत में लगे हाथों की चिकनाई में
फ़र्क तो है

पेट भराई के रंगीन पाखण्डों और
लोहे को
आरण में लाल करने के रंग
अलग तो हैं
देशी अँग्रेज़ी के ठाट-बाट और
जनवरी की ठण्ड में न्यार काटती
दलित औरत का काम
एक तो नहीं है

बूंगों से बड़े छेद और
चिलम से तंग दिल
व इन सबको झूठ समझकर
पसीना निचुड़ते पहरों में
पल गुज़ारने वाली
माँओं की आहों के बीच
फ़ासला तो है

पँचायत के सरदारों की
धौंस के फ़ायर से भिड़ने के
वक़्त आने की
इन्तज़ार में खड़े
हमारे सबसे क़ाबिल कवि की बात
समनार्थी तो नहीं है

फिर
सुन्दर क्या है
सच कैसा होता है
इसे

हमें ही तय करना है।