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स्त्री के बारे में / अशोक तिवारी

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स्त्री के बारे में

मुझे लिखनी है एक कविता
स्त्री के काम करते हाथों के बारे में
दया नहीं, दान नहीं
अहसान नहीं
मुझे करनी है एक टिप्पणी
उसकी ऊर्जा के बारे में
जिसे उसने अपने अंदर समेटा है

जिस तरह उसकी ताक़त (ऊर्जा)
संचित होकर बन जाती है संघर्ष
जिस तरह ठंडी बूंदों का अहसास
भर देता है
व्याकुल मन में गरमाहट
जिस तरह उसके रात-दिन
बुनते है
जीवन की मुश्किल मगर खूबसूरत चटाई
मुझे उसका अहसास भरना है
अपने अंदर उसी तरह
और लिखनी है एक कविता
जो स्त्री के घूँघट के अंदर
कर सके उसकी मुस्कान दर्ज
दर्ज कर सके उसकी सोच की मुद्रा
समझ सके उसके आह्वान को
समेट सके पनीली आँखों के सपनों को
ग़ुस्सा और आग उगलती आँखों की भंगिमा को पढ़ सके
और व्यक्त कर सके
उसकी उधेड़बुन और उसकी सोच को
जो मेहनताना पाने की ख़्वाहिश में
बैठी है भूखी, प्यासी
व्यवसायी के पायताने,
बहुमंज़िली इमारत के नीचे
गारा बनाते वक़्त,
एक अदद ‘छत’ और एक अदद ‘रोटी’ का सपना पाले
जुटे हैं उसके हाथ
मुझे लिखनी है एक कविता उस स्त्री के बारे में
जो अपने बच्चों को
झुग्गी में या सड़क की पटरी पर
लावारिस छोड़कर काम पर आई है।

उस सपने की तासीर
महसूस करनी है मुझे अपने अंदर और
लिखनी है एक कविता
उस स्त्री के बारे में
जो वहाँ नहीं है
जहाँ उसे होना चाहिए।

22/10/2001