भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हम युवा इस गिरि अंचल के / जितेंद्र मोहन पंत

Kavita Kosh से
Abhishek Amber (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:26, 17 मार्च 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=जितेंद्र मोहन पंत }} {{KKCatKavita}} <poem> हम...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


    हम युवा इस गिरि अंचल के,
        नया जोश दिखलायेंगे।
    मातृभूमि के रक्षक बनकर
       'पर्वत' खूब सजायेंगे।

डटे हुए हैं सीमा पर हम, राष्ट्र स्वतंत्रता के हैं प्रहरी।
शांति अहिंसा के आराधक, बाधा आगे कभी न ठहरी।।
तूफानों की राह बदलते, चट्टानों को मार गिराते।
राह में कंटक जो भी आये, उन्हें समूल हैं उखाड़ते।1।
   
  हम वीर जो चट्टानों में
       हरित क्रांति को लायेंगे।
    मातृभूमि के रक्षक बनकर
       'पर्वत' खूब सजायेंगे।

हम सुमन जो कमल करों से, चमन को अपने सजा रहे हैं।
नये विश्व के नये प्रणेता, नयी सी दुनिया बसा रहे हैं।।
गिरिमंडल को विकसित करने, खून पसीने को बहा रहे हैं।
वृक्षारोपण कार्य को करके, वनों को अपने बढ़ा रहे हैं।2।

    नंगी धरती पर वृक्ष लगाकर
       'मधुवन' मधुर बनायेंगे।
    मातृभूमि के रक्षक बनकर
       'पर्वत' खूब सजायेंगे।

शैल सुविकसित सबल करने को, सदा स्वच्छ ही कर्म करेंगे।
'न झुक सकेंगे' इस आत्मबल पर, उत्तराखंड की ढाल बनेंगे।।
सदाचरण की राह पे चलकर, जग में अपना नाम करेंगे।
सदा कर्म ऐसा ही करेंगे, जो 'जन' हमको याद करेंगे।3।

    चलो सभी सदगुण अपनाकर
       'जीतेंद्रिय' कहलायेंगे।
    मातृभूमि के रक्षक बनकर
       'पर्वत' खूब सजायेंगे।