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हरिक शै में तेरी मौजूदगी महसूस करता हूँ / अजय अज्ञात

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हर इक शै में तेरी मौजूदगी महसूस करता हूँ
अँधेरों में निहाँ इक रौशनी महसूस करता हूँ

सुनाती है तरन्नुम में ग़ज़ल बादे सबा मुझको
मैं अपनी ज़िंदगी में ताज़गी महसूस करता हूँ

मुझे मालूम है मेरी हदें क्या हैं मगर फिर भी
हदों को पार करने में ख़ुशी महसूस करता हूँ

तुम्हारी याद के जुगनू हमेशा साथ चलते हैं
अँधेरी रात में भी चाँदनी महसूस करता हूँ

ये तुमने मौन रक्खा है कि बहरा हो गया हूँ मैं
जहां के शोरो-गुल में ख़ामुशी महसूस करता हूँ

ज़्ामीं को छोड़ कर जब से सितारा बन गयी है माँ
‘अजय’ उसकी हमेशा मैं कमी महसूस करता हूँ