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हिमालया पुकारता / प्रतिभा सक्सेना

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समग्र शान्ति के लिए!
कि जीव मात्र के लिए धरा कुटुम्ब ही रहे,
वनों,समुद्र पर्वतों में शंख-ध्वनि गुँजारता .

अलग न भूमि खंड ये, अखंड है वसुन्धरा,
हृदय विशाल हो मिलन समान मित्र-भाव का,
न स्वार्थ साधना, न हो प्रवंचना, विडंबना,
मिलो तो प्यार से मिलो, समुद्र मार्ग दे रहा!
नई सदी मनुष्यता के पाठ बाँचती रहे,
नवीन युग प्रवेश-द्वार में खड़ा निहारता!

ये वोल्गा .ये हाँगहो .फ़रात, नील, ज़ेम्बसी,
धरा को बाँह में भरे ये ऊष्ण-शीत बंध भी,
गगन,समीर,जल.अनल, सुदूर अंतरिक्ष तक,
अखंड शान्ति व्याप्त हो विकास पथ सँवारती!
सिहर रही अमेरिका के राकियों की शृंखला
अमेज़नी तटों का अंधकार दीप्ति माँगता!

ज़हर न खेत में उगे, पुकारता है दारुवन,
उदास हर कली हुई, चले न बारुदी पवन .
कि रंग-भेद, नस्ल-धेद,पंथ-भेद अब न हों,
मदान्ध द्वेष भस्म कर न दे कहीं सभी सपन
धुआँ-धुआं हुआ पवन गुबार हिमित द्वीप के,
सुदूर पूर्व में खड़ा हुआ फ़ुज़ी फुँकारता!

कि गंग सिंधु,ब्रह्मपुत्र,नर्मदा पुकारती,
पुकारता है शोण नद, कि टेरती महानदी,
अमोघ शान्ति-मंत्र--पाठ सृष्टि को सुना रही
समुद्र संधि पर अड़ी खड़ी प्रबुद्ध भारती
समृद्ध ऋद्धि-सिद्धि से धरा बने मनोरमा,
मनुष्य की मनुष्य से बनी रहे समानता!