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अँधे हुए किनारे / कुमार रवींद्र
Kavita Kosh से
बूढ़े सागर- अँधे हुए किनारे
नाव पुरानी हम किस घाट उतारें
सहते-सहते
डर-तूफ़ान-थपेड़े
जल-समाधि ले गए
हज़ारों बेड़े
हर घटना के सीने में मँझधारें
नाव पुरानी हम किस घाट उतारें
बार-बार हैं आतीं
छली हवाएँ
दिन भर
बातें करतीं हैं संध्याएँ
रात अकेली- थकी हुई पतवारें
नाव पुरानी हम किस घाट उतारें
बाँहों में थामे
आकाशी सपने
टूट गए हैं
सारे चप्पू अपने
दूर-दूर से छलती हैं मीनारें
नाव पुरानी हम किस घाट उतारें