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अँधेरी रात की छाती पर मूँग दलते रहे / राम नाथ बेख़बर

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अँधेरी रात की छाती पर मूँग दलते रहे
हवा से लड़ते हुए कुछ चराग़ जलते रहे

हमेशा जिनके इशारों पर हँस के चलते रहे
तमाम उम्र उन्हीं की नज़र में खलते रहे

यक़ीन मानिए आकर दबाव में उनके
बयान कटघरे में रोज़ हम बदलते रहे

हरेक सम्त हैं अब आस्तीन के साँप कई
नमक वह ज़ख़्म पर छिपकर हमेशा मलते रहे

पहुँच सके न कभी हम क़रीब मंज़िल के
ये और बात है हँसते-हँसाते चलते रहे