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अंजलि / शंख घोष / प्रयाग शुक्ल
Kavita Kosh से
घर जाय प्रिय जाय परिचित जाय
सबको मिलाकर आय वह मुहूर्त
जब तुम हो जाते अकेले
खड़े हो उस मुहूर्त-टीले पर और
जल है सब ओर, जल, जल धारा
प्लावन में घरहीन, पथहीन प्रियहीन
परिचितहीन
तुम ही अकेले
शून्य तले महाकाल के
दो छोटे हाथों से पकड़े हुए धूल भरा माथा
जानते नहीं कब दोगे किसको दोगे
जाकर दोगे कब कितनी दूर।
मूल बंगला से अनुवाद : प्रयाग शुक्ल
(हिन्दी में प्रकाशित काव्य-संग्रह “मेघ जैसा मनुष्य" में संकलित)