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अंतस को औंटे बिना / नईम
Kavita Kosh से
अंतस को औंटे बिना,
अभ्यासों के बूते-
जीवन-भर गाए जाते अभंग।
साँसों के दम-खम दाँव-पेंच, बोलों-ततकारों के,
बाजीगर, चर्चे ही चर्चे हैं मात्र चमत्कारों के;
महज जुगलबंदी में,
शौर्य के प्रदर्शन ये-
इनकी ढोलक फूटी उनके फूटे मृदंग।
प्यार के दरीचे ये औलिया फकीरों की ख़ानकाह,
इनमें से होकर गुज़रता है एक बड़ा जनप्रवाह;
खु़सरो की देहरी पर
अंतस गलाए बिना
जानूँ मैं, गा जाए कोई रंग?
कला और जीवन के अंतरसंबंधों पर बोल रहे,
सुरों, शब्द, रंगों का समझे बिना स्वभाव, घोल रहे;
गहरे प्रभावों को
सतह पर खड़े होकर
व्याख्यायित करते बैठे मलंग।
अंतस को साधे बिना,
जीवन-भर गाए जाते अभंग।