कल रात नींद मेरी टूटी, विचारों का धागा भी टूट गया
सोच की वन छाया में मँडरा रहे बाज़ को मैंने पहचाना
सुलग रहा था चोंच में उसकी
आज भी वही ख़ू कबूतर का
होता हुआ चोटियों से, झाड़ता जा रहा था पंख
खुले आकाश में।
सिरहाने पर सिर फेरा मैंने करवट बदली
तो गहरा काला खड्डा दीखा
टेक लगाकर खंभे से मैं बैठा
मेरे सीने में पैठ गया था माघ, होंठ सूखे
खिड़की के बाहर कानाफूसी सुनी
गिर रही बर्फ़ थी, फाहे ढँूढ़ रहे थे छिपने की जगहें
दीवार-दरारों में।
भंडार कोष्ठ की ओर चढ़ी
‘फिरन’ की जगह लटक रहा था एक बिलाव
अलगनी के ऊपर
आँखें मलीं, रज़ाई को अपने ठंडे काँधों तक
ऊपर खींच लिया
हिल गई कांगड़ी, ऐसे समय गिरी <ref>अयाचित</ref>
राख ठंड़ी मेरे पैरों के ऊपर
तभी सुनाई उल्लू की <ref>अनचाही</ref> आवाज़
मू -दू - हू
मन देता मेरा साथ उस समय
तो मैं जोर से रो पड़ता
अचानक याद आया मुझे
मरे जिगर का टुकड़ा
कल रात कहानी सुनने मेरे पास
बड़े शौक़ से आ बैठा था
सुनाई मैंने उसे सीपी की दुःख कथा
सुनी उसने मगर आधी ही
कि मीठी निंदिया ने उसे घेरा-
बौखलाया, उठा मैं, बिजली की जलाई बत्ती
देखा, कोने में पड़ा सोया था, नहीं कुछ ओढ़ना लेकर
अभी फूटी हो कि ज्यों ताज़ा खुम्मी
खिल रहीं उसके होठों पर कई
सुगंधित कलियाँ
बीच माथे पेर, एक बूँद पसीने की
हुआ था अरूणोदय
सपने में वह शायद देख रहा था
आधी सुनी कहानी का शेष भाग
शायद बहुत जूझकर आखि़र
एक मोती
सीप में जन्म चुका था