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अंधा कुंआं / तारादत्त निर्विरोध
Kavita Kosh से
चलो, अच्छा हुआ
हमने भी झांक लिया
लंगड़ों के गांव का
अंधा कुंआं।
अब तो हैं छूट रहे
पांवों से
पगडंडी-पाथ,
वह भी सब छोड़ चले
लाए जो साथ-साथ।
न कहीं टोकते गबरीले शकुन,
न कहीं रोकती मटियाली दुआ।
हमने ही चाहे नहीं
झाड़ी के बेर,
छज्जे की धूप के
नये हेर फेर।
अरसे से मौन था
भीतरी सुआ।