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अकस्मात / नवीन सागर
Kavita Kosh से
खुल कर हँसते खिड़की दरवाज़े
तारे पूरे आसमान में झिलमिलाते
चाँद विस्मित प्रसन्न
धरती पर फैली-फैली रात
गलियों में घूमता लगातार
घरों में जाता हूँ आर-पार
घरों से निकलता हूँ दिखता हूँ
दिखता हूँ हर जगह
हाँ, मैं ही तरह-तरह अकस्मात !