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अकेली होती रेत / अश्वनी शर्मा
Kavita Kosh से
एक बगूला बैठा देता है
आसमान पर रेत को
हवा के हिंडोले में
हिचकोले खाती रेत
छूती है अनजान ऊंचाईयां
आश्चर्य से देखती है
जड़ पड़े उन टीलों को
जिनका अंशभूत ही है वो स्वयं
ऊंचाइयों के सम्मोहन में उलझी रेत
बड़ी आर्द्र्र हो देखती है
अभी भी नीचे पड़े टीलोें को
फिर अचानक
रो उठती है दहाड़े मारकर
कितनी अकेली हो जाती है रेत
टीलों से अलग होते ही
ऊंचाईयां, न सम्मान है न राहत
बस अकेलापन है।