भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अकेले / आचार्य महेन्द्र शास्त्री
Kavita Kosh से
छोड़-छोड़ आसा अकेले नाव खोल रे।
ऊ खूब नीमन गइला पर जननी
लगेला सुहावन सुदूर वाला ढोल रे-
अब-तक उनकर मुँह हम जोहनी
निमने भइल कि खुल गइल पोल रे-
काम का बदले बदला दीहल
लटकवला से टरकावल भल
ना सँपरे तब-साफ-साफ बोल रे-
दउड़वला से फल पइबे ?
काहे खातिर टालमटोल रे-
नाहक सबकर दुश्मन बन-बन
कहलइबे तें एक भकोल रे-
बेहोसी में व्यर्थ परीक्षा
नम्बर मिलजाई एगो गोल रे-
तब तें पोंछिये बनल रहबे
तब तोर कइसे होई मोल रे-
अबहूँ से आपन आदर कर
कठपुतरी बनकर मत डोल रे-
ठोकर-पर-ठोकर तें खइले
न मनले तब मिल गइल ओल रे-