अकेले की ओर- 3 / शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव
मित्र !
अग्रसर हूँ मैं निरंतर
अकेले की ओर
अकेले की तरी व
अकेले का आवेग लिए
मेरे ये आवेग
मेरे भीतर से आपूर्य हैं
पर परिवेश की अंतःप्रकृति से भी
ये अजान नहीं हैं.
आज का परिवेश
कदाचित पर्यावरण कहना
अधिक युक्तिसंगत होगा
एक धुंध से भरा हुआ है
लोग इसी धुंध में
अपने स्वगत लक्ष्य का
संधान कर रहे हैं
उनके भीतर भी एक धुंध है
पर वह उन्हें
कोई दृष्टि नहीं देता
मेरे भीतर भी एक धुंध है
इस धुंध मे ही मैं
अपना अर्थ ढूँढ़ता हूँ
मुझे अपनी दृष्टि का
संधान मिलता है इस धुंध में
पर ऐसा भी नहीं है कि मैंने
अपने परिवेश से अपने को काट लिया है
परिवेश का आकर्षण ही तो
मुझे जीने का संघर्ष देता है
पर मेरा अपने केंद्र पर होना
संघर्षों में मेरे पैरों को टिकाव देता है
मैं अपने अकेले की ओर अग्रसर हूँ
बस अपने केंद्र पर होने के लिए
और अब मैं अपने केंद्र पर
होने लगा हूँ
और सच जानो इस होने में
मेरा हर पल
मेरी अंतर्बाह्य अनुभूतियों से
भावदग्ध है
मित्र ! मैं इन पलों को
भरपूर जी लेना चाहता हूँ
अपने पोर पोर में
इन्हें पी लेना चाहता हूँ.
आज अभिव्यक्ति के मोह का
थोड़ा संवरण करूँगा मैं
मन में एक भाव जगा है
कि मैं कुछ ठहरूँ
और अपनी चेतना के प्रवाह का
साक्षी बनूँ
अकेले की ओर के प्रयाण का
यह पहला पड़ाव है स्यात.