भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अकेले के पल- 1 / शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मित्र !
       मेरी ऑखें
       प्रकृति के आँचल में खुलीं
       आँचल की थपकियों में
       मुझे ममत्व मिला
       फिर उसकी उँगलियों के सहारे
       प्रकृति की विराटता में
       मेरे कदम उठे
       एक दिन वे उॅगलियाँ अदृश्य हो गईं
       स्थूलता ने सूक्ष्मता का बाना पहना
       और तब मुझे लगा
       इस विराट की यात्रा में
       मैं अकेला हूँ,
       मेरे पल अकेले के हैं.

       मैने यह भी अनुभव किया
       कि मेरे पास
       मेरी निजता की नाव है
       जो अस्तित्व की डोर से बँधी
       उससे छिटकी एक इयत्ता है
       जिसकी पतवार भी मैं हूँ और पाल भी मैं हूँ
       और कितना आश्चर्य है
       कि यात्री भी मैं ही हूँ.

       विराट की करुणा और विराटता की तरफ
       साश्चर्य खुली मेरी आँखों ने देखा
       कुछ खूँटियाँ भी हैं मेरे गिर्द
       जो मेरी ही तरह छिटक कर
       रूप-कल्पित है
       कुछ विकसित कुछ अंतर्विकसित
       जिसका मैं चुनाव कर सकता हूँ
       मैंने चुना भी, पर खो गया
       जब धुरी पर लौटा
       तो हवा में तरंगायित तुम्हारे आमंत्रणों ने
       मुझे आकर्षित किया
       खूँटी से टिक रहने का भय तो
       यहाँ भी था
       पर अंतरिक्ष के आह्वान से आंदोलित
       बीज के प्राणों में
       जैसे विस्फोट हो गया हो
       तुम्हारे आमंत्रणों ने
       मेरे प्राणों में विस्फोट किया
       और मैं अपनी नाव
       तुम्हारी तरफ मोड़े बिना
       नहीं रह सका.

       ये आमंत्रण
       मानों पंक्ति पंक्ति में बोलती
       अस्तित्व की ताजी रचना हैं
       जिसकी अभिव्यंजना के तरंगाघात
       मुझे मुकुलित करते हैं
       मैं इन आमंत्रणों की तरफ मुखातिब
       अपने अकेले की नाव में

       अपने अकेले के पलों को साथ लिए
       तुम्हारे सिंह-द्वार तक आ पहुँचा हूँ
       देख रहा हूँ
       यहाँ अनेक तख्तियाँ टँगी हैं
       ये मुझे टोकती हैं, टटोलती हैं
       मेरी आहट लेती हैं
       मेरी संभावनाओं की टोह लेती हैं
       सो तुम्हारे सिंह-द्वार तक आकर
       मुझे ठिठकना पड़ा है.

       संप्रति मैं यहाँ ठिठका खड़ा हूँ
       ये तख्तियाँ मुझे टोकें, टटोलें
       आहट लें, टोह लें
       जो भी इनकी प्रयोगशीलता माँगे
       ये करें
       मुझे कुछ नहीं करना
       मैंने तो बस
       इनकी संवेदनशीलता पर
       अपनी दृष्टि टिका दी है
       मैं भी इन्हें उलटूँगा, पलटूँगा
       कान पाते ठोकूँगा
       अपनी इयत्ता में पूर्ण हो इन्हें झिंझोड़ूँगा.

       अब,
       जब मैं यहाँ तक आ ही पहुँचा हूँ
       तो मिलने की उत्कंठा को
       क्योंकर दबाऊँ.
       लो मैंने अपने कदम उठा लिए
 
       दस्तकों के लिए हाथ भी उठ गए
       अब इसका साक्षी तो मैं ही हूँ
       मैं दस्तकें दे रहा हूँ
       इन्हें सुन भी रहा हूँ
       इस क्षण
       मेरा पूरा अस्तित्व झंकृत है
       लहरों के वृत्त बन रहे हैं
       देखें इनकी वीचियॉ
       कहाँ खोकर
       कहाँ अंतर्घ्वनित हेाती हैं.