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अक्तूबर की वह शाम / प्रताप सहगल

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पहली शाम थी हमारी
हम कैद थे एक होटल में
बाहर तेज़ सनसनाहट
झूलते पेड़
खिड़कियों पर दस्तक देती हवा
तेज़ बारिश के छींटे
मैं भीगना चाहता था
और शशि बार-बार मुझे
पकड़ लेती थी
एक तेज़ तूफान
बाहर-बाहर से ही गुज़र गया
तब कहीं खिड़की खुली
सामने डल थी
तैर रहे थे उसमें घर
और खामोश खड़े थे शिकारे
(शायद सो रहे थे)
सो रही थी हमारी बेटी भी।
तैरते घरों की एक पेंटिंग बनाकर
मैंने आंखों में भर ली
और पलके मूंदकर लेट गया।

1976