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अक्षरों का सौदागर / रमेश रंजक
Kavita Kosh से
आधी रात ओढ़ कर
आधी रैन बिछा कर
मैंने आधी उमर काट दी पीड़ा गा कर
मेरे आँगन में जितने क्षण बिखरे दुख के
शब्द बना डाले मैंने अपने आमुख के
उमड़-घुमड़ कर आँसू
टीप गए हस्ताक्षर
छन्द पिरोने लगी उदासी टूटे मन की
जाने कैसे बूँद हो गई, आग बदन की
गीत पुनीत हो गए
गंगाजली चढ़ा कर
पंक्तिबद्ध दिन हुए ज़िन्दगी हुई संकलन
बनवासी सूनेपन को दे दिया सिंहासन
मन-महीप हो गया
अक्षरों का सौदागर