अक्सर सोचता हूँ / कर्णसिंह चौहान
अक्सर क्रांति के बारे में सोचता हूँ
बर्फ़ धंसे गमबूटों
परकोटों, कनटोपों में
कैसी सजती हैं मूछें
कारतूस, पेटी, बंदूक
कितनी अच्छी लगती हैं
कतारें और कवायद
छूटना गोली का सटाक से
और लबदे में घुस जाना
बिछी सफेद चादर पर
आदमी का ढेर हो जाना
फल जाना ऊपर चटख रंग।
हिंसा बेहद वायवी
स्वप्न सी लगती है
स्क्रीन पर्दे पर
छूटे बमों को फुलझड़ियां
शहर खंडहर हो जाय
आदमी कला दीर्घा के चित्र में बदल जाय
यह सब
क्रांति के कितना अनुकूल है।
अक्सर शांति के बारे में सोचता हूँ।
कितना अजीब लगे
नंगे टखनों पर खुंसी लुंगी
मरियल कंधों पर
रायफल लादना
हंसी छूटेगी
अगर बने कतार
कितना दर्दनाक है गोली का
पसलियों में धंसना
भूरी मिट्टी पर
बदरंग रक्त का फैल जाना
यह सब
शांति के लिए कितना अनुकूल है
हर मौसम की अपनी खूबी है
यहां शीत के बाद
कैसा फलता है बसंत
उसमें वैसा ही उद्दाम
प्यार किया जा सकता
अपनी चुचुआती लू में
फसल उठाने
और अधकचरी शीत में
गन्ना धंसाने के सिवा
क्या हो सकता है?