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अखारोॅ के मेघ / प्रदीप प्रभात

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अखारोॅ के मेघ पिया
लागै कसाय छै
हमरोॅ मनोॅ उदास छै।
रातभर रिमझिम पानी पड़ै
हम्मेॅ सुतबोॅ की? जागलियेॅ रहौ
कथी लेॅ, केकरा लेॅ करला शृंगार
पलंगोॅ के विछलोॅ बिछौना
हमरा काटै लेॅ दौड़ै।
सब कुछ तेॅ छै मतुर कि
घरोॅ के खुशी गेलोॅ छै छिनाय
समुच्चा गामोॅ सेॅ, हमरेॅ घोॅर लागै छै अन्हार।
घरोॅ के खुशी बिन, सभ्भेॅ शृंगारोॅ बेकार
सबकेॅ सब उदास छै, सभ्भेॅ नराज
आय ऐंगना के पपीता गाछ आरोॅ अड़हुल के फूल
कत्तेॅ निराश छै कत्तेॅ उदास।
अपन्हैं आप सब मनझमान छै
ऐंगना द्वारी भंग लोटै छै।
आयु कहाँ चल्लोॅ गेलोॅ छै हँसी
कत्तेॅ दूर चल्लोॅ गेलै ऊ खुशी।
एक दोंसरा के हर बात
नागफनी कांटोॅ बुझाय छै।
रामपुर विजूबन बनी गेलै
आकाश उल्टी केॅ कुइं´ा हॉेय गेलै।
सभ्भैं रोॅ सब खुशी छिनाय गेलै
बुद्धि सब रोॅ ओझराय गेलै।
अखारोॅ के मेघ पिया
सचमुच कसाय छै।