भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अगन / अर्जुनदेव चारण
Kavita Kosh से
उण दिन
थारी साख मांडीजी ही
थनै
जगाइजियौ हौ
उण दिन
आंगणै रै
ऐन बीचो बीच
थारै सूं ई
मांगियो हौ
इण अदीठ
सिरजण रौ म्यानौ
जांणता थकां
आ बात
कै निकळियां थारै सूं
सैं
कर लेवै धारण
थारौ रूप
थूं
आय होयगी
थिर
म्हारै अर उणरै बिच्चै
अबै
म्हैं हूं
वो है
अर दोनां रै बिच्चै
जुगां पसरियोड़ी
ऊभी है थूं
जीवती
थूं ई बता
थारै टाळ
किणनै पूछूं
म्हारौ
घर कठै है
अगन।