भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अगर कुछ सरगिरानी दे रही है / ओंकार सिंह विवेक
Kavita Kosh से
अगर कुछ सरगिरानी दे रही है,
ख़ुशी भी ज़िंदगानी दे रही है।
चलो मस्ती करें,ख़ुशियाँ मनाएँ,
सदा ये ऋतु सुहानी दे रही है।
बुढ़ापे की है दस्तक होने वाली,
ख़बर ढलती जवानी दे रही है।
गुज़र आराम से हो पाये,इतना-
कहाँ खेती-किसानी दे रही है।
फलें-फूलें न क्यों नफ़रत की बेलें,
सियासत खाद-पानी दे रही है।
सदा सच्चाई के रस्ते पे चलना,
सबक़ बच्चों को नानी दे रही है।
तख़य्युल की है बस परवाज़ ये तो
जो ग़ज़लों को रवानी दे रही है।