भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अगर नाराज न हो / सौरीन्‍द्र बारिक

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अगर नाराज न हो
तो एक बात कहनी है।

तुमसे कहने में डर लगता है
क्‍योंकि तुम सुनने के पहले
एक मधुर भीषणता में
बिफर उठती हो
अगर शान्ति से सुनो
तभी कहूं मैं।

तुम क्‍या नहीं जान पाती हो
हम कैसे आपस में एक-दूसरे से
अलग होते जा रहे हैं धीरे-धीरे
मुकुलित कोंपल-जैसे

अब तुममें और मुझमें
अनेक नयी सृष्टि की मीठी-मीठी गुनगुनाहट
उनके कोमल कांटों की बाड़ फलांगकर
तुम मेरे पास नहीं आ पाती
उन दिनों की तरह फिर मुझे अपना नहीं पाती
वे हैं प्रिय षडयंत्रकारी
देखती नहीं कैसे
तुम्‍हें मुझसे अलग कर दिया है ?
और इस पर भी तुम कहती हो
हमें अधिक सघन करते हैं
पूर्ण करते हैं जैसे अंतरिक्ष में पृथ्‍वी और आकाश

अगर नाराज न हो तो कहूं
चिडि़या की तरह
चोंच में उस दिन की सृष्टि को लेकर
एक पल के लिए अगर मेरे पास उड़ आती
तो अपूर्णता में भी मैं भर जाता
वक्‍त की चिकनी कलाई नहीं छोड़ता।

अगर नाराज न हो तो
एक बात कहनी है।
मूल उड़िया से अनुवाद - वनमाली दास