अगरतला में बंगलादेशी छतरी / राजेन्द्र उपाध्याय
राजेन्द्र उपाध्याय
अगरतला के भीड़ भरे बाज़ार में
टंगी हुई वह एक छतरी है
बंगलादेश में बनी हुई
बंगलादेश में सिला गया है उसका कपड़ा
बंगलादेश में बंधी है उसकी तनियाँ
बंगलादेश में रहता है उसका जन्मदाता
उस कपड़े में है एक बंगलादेशी मंजूर की गंध
उन तनियों में तनी है एक बंगलादेशी मजूर की उंगलियाँ
बगैर पासपोर्ट बगैर वीजा के वह चली आई है इस अनजान मुल्क में
अपना आकाश अपना इन्द्रधनुष पीछे छोड़ आई है।
उसमें बंगलादेश का आकाश झांक रहा था
उसमें बंगलादेश का इन्द्रधनुष ताक रहा था।
इस छतरी ने नहीं जानी है अभी इस देश की धूप और धूल
यहाँ की बारिशों का स्वाद नहीं जाना है
हवा के थपेड़े नहीं सहे हैं
इस शहर में इस देश में यह नई-नई आई है
यह बेचारी अनजान नावाकिफ इस शहर की सड़कों, चौराहों, घुमावदार मोड़ों से
यह इस देश के लोगों का मिज़ाज नहीं जानती है
इसने अभी इस शहर इस देश का हवा पानी नहीं चखा है
इसे अभी इस शहर इस देश की बोली बानी जानने में लगेगा वक्त
इसे एक मौका तो देकर देखो
फिर वह ऐसे यहाँ रच बस जाएगी
जैसे यही जन्मी थी
तुम्हारे बुढ़ापे की लाठी बन जाएगी
मरते दम तक तुम्हारा साथ नहीं छोड़ेगीं।