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अग्निवृष्टि करो / मनोज चारण 'कुमार'

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जागो अग्निधर्मा ऋषियों, सोये क्यों हो समाधि लिए,
बहुत फेर चुके मालाएँ, अब जागो परशु हाथ लिए।
बहुत कमाया तेजो तपोबल, जागो नूतन प्राण लिए,
बहुत रट चुके नाम को, जागो हाथ कृपाण लिए।
मृगछाला मालाएँ छोड़ो, त्यागो दया अघारि तोड़ो,
अब अपना भुजबल दिखलाओ और कमंडल वारी छोड़ो।
शैल शिखर को त्याग तपस्वी, अब रण में पड़ना होगा,
शान्त बहुत बैठे थे कल तक, अब रण में लड़ना होगा।
त्याग हिमालय की हिम को, शीतलता का परित्याग करो,
सहिष्णुता को छोड़ तपस्वी, जीवन में प्रज्ज्वलित आग करो।
यज्ञकुंड को त्यागो यौद्धा, समिधा छोड़ो हाथों की,
हविष्य को छोड़ पात्र में, स्त्रुवा तोड़ो हाथों की।
मुख से त्याग करो मंत्रों का, हर-हर-बम का उच्चार करो,
दूर बैठाओ देव ब्रह्म को, हरी-हर का सत्कार करो।
याद करो पौरुष अपना, दधीचि का सा दान करो,
भय फैला है पुनः जगत में, दे अस्थियाँ अब त्राण करो।
जागो हे दाधीच! वृत्रासुर गरजता आता है,
जागो प्रभु! दो अस्थीदान, आर्यावृत कुचलता जाता है।
उठ भागीरथ पुनः देख, नूतन प्रयत्न करना होगा,
किल्विष फैल रहा जगत में, सुरसरि को जगना होगा।
हे राम! हुई क्या ? कुंद धार, क्यों ? होता नहीं परशु का वार,
या टूटी डोर शरासन की या उतरा आपका क्रोध ज्वार।
जागो हे भृगुकुल गौरव! तेज दिखाओ तपबल का,
हे आर्य! शान्त क्यों बैठे, समय हुआ अब हलचल का।
पुनः परीक्षा लो राम की, जगाओ वीरता को गुरुवर,
वरना पुनः प्रताड़ित होगी, आर्य सभ्यता अब भू पर।
जमदग्नि के लाल जगो, दुर्जनों के हे महाकाल! जगो,
जागो वीर धनुर्धर जागो, हे क्रोधानल के ताल! जगो।
हे वाल्मीकि! हे वेदविशारद! जगाओ फिर श्याम धनुर्धर को,
शेषनाग-सम वीर लखन को, धरती पर बुलाओ धरणीधर को।
हे व्यास! रचो फिर से महाभारत, केशव का पुनः आव्हान करो,
वामन पुनः विराट बने, फिर से हरि का गुणगान करो।
हे कृप! छोड़ो दुर्योधन को, सत्य के अब चलो साथ,
बहुत साथ दिया नमक का, अब तो धर्म का गहो हाथ।
हे कृप! गेरुए को देखो, कौरव-छल मैला करता है,
हे आर्य! अब तो संभलों, यह धर्म को मैला करता है।
शंकर के अवतार महि पर, हे शंकर! अब तो शंख बजा दो,
फटे व्योम डगमग करे दिग्गज, जग मे ऐसा नाद गूँजा दो।
खण्ड-खण्ड होते भारत को, पुनः एक सूत्र में लाने को,
हे शंकर! अब तो घर छोड़ो, चहुं दिस को मठों से जोड़ो।
जागो विश्व संबोधित करने, हे आनन्द विवेक! क्यों सोये हो?
जागो रामकृष्ण के चेले, कहाँ ? तपस्वी खोये हो।
लोहे के भुजदंड चाहने, वाले अब तुम गए कहाँ,
स्नायु में फौलाद भरे जो, योद्धा सन्यासी सोये कहाँ।
विश्वसभा में गूँजा स्वर जो, आज पुनः तुम उसे गूँजा दो,
हिले चराचर मच जाए हलचल, भैरवनाद पुनः गूँजा दो।
केसरतुंग से महोदधि तक, कच्छ-कामख्या साथ में गूँजे,
करो गर्जन हे वीर तपस्वी! विश्व समूचा थर-थर धूजे।
सिंधुसुता भारतभूमि पर, वृत्रासुर देखो मचलते है,
गदली गंगा देख-देख, सगरसुत मन में कलपते है।
आर्यावृत की छाती पर, फिर दलने मूंग लगे दुर्जन,
परशु लिए हे राम! जगो, करो परशु को लहु से तर्पण।
देखो पांचाली भारत की, छलना से ललना लाल हुई,
जनक-नंदनी पर फिर देखो, रावण की आंखे जाल हुई।
देखो पतन पाखंड पाप का, नृतन हो रहा भू पर,
देखो दनुजों के प्रलाप का, क्रंदन हो रहा भू पर।
जागो हे यौधाओं! जागो, युद्ध का भीषण नाद करो,
तोड़ो भुजाओं के बंधन, कुरुक्षेत्र को आबाद करो।
तोड़ो म्यान कटारों की, अब परशु को आजाद करो,
लहु सोखते चलो रण में, भीषण भैरवनाद करो।
जागो हे अग्निधर्मा ऋषियों ! नूतन रण की सृष्टि करो,
छले, भारती को मले जो, दनुजों पर अग्निवृष्टि करो।