भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अजनबी / लोकमित्र गौतम

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मां की चिंताएं
पिता की अनुभव कथाएं
पेशाबघरों के इश्तहार
अख़बारों के सावधानियां सुझाते लेख क्या कम थे?
जो अब रेलवे स्टेशनों
बसअड्डों
त्योहारी मेलों
मौसमी नुमाइशों
और शहर के व्यस्त चौराहों में भी
अजनबियों से आगाह करने लगी हैं मशीनी जुबानें
अजनबियों पर भरोसा न करें
अजनबियों से दूर रहें
अजनबियों का दिया कुछ न खाएं
अजनबियों की ..............
जैसे अजनबी होना , अपने आपमें खतरनाक होना हो
जैसे अंजान होना, दुश्मन होना हो
जबकि इतिहास तो अनजाने, अंजानियों की
प्रेम कहानियों से भरा पड़ा है
कभी किसी रास्ता भटके नाविक के अजनबी किस्से सुने हैं आपने?
कभी किसी यायावर के अजनबी अनुभव जाने हैं आपने?
सुनोगे जानोगे तो सोच बदल जायेगी
फिर दुनिया को महज़ अपनों और परायों के
दो गोलार्धों में नहीं बाँट पाओगे
क्योंकि मुट्ठी भर अपनों से बहुत ज्यादा है अजनबी
रटे रटाये रिश्तों से कहीं ज्यादा करीब हैं अजनबी
ये अजनबी ही हैं
जो घायल योद्धाओं और घुमक्कड़ों को संत बनाते हैं
ये अजनबी ही हैं
जो कालिदास को महाकवि और रामबोला को गोस्वामी तुलसीदास बनाते हैं
अजनबियों को अपराधियों की कतार में गिनना
अजनबियों के विरुद्ध
अपनों की सोची समझी साजिश है
उनके विरुद्ध किया गया संगठित दुष्प्रचार है
वर्ना पुलिस के रोजनामचे में तो दर्ज है
पंचानवे फीसदी बलात्कारी जान पहचान के होते हैं
हैवानों की जमात का सबसे बड़ा हिस्सा
दोस्त, रिश्तेदार ,परिचित और पडोसी होते हैं
तथ्य बताते हैं
धोखा देने वालों में निन्यानवे फीसदी
अपने या अपनों सरीखे भरोसेमंद होते हैं
अलग अलग दौर में हम भले उन्हें अलग अलग नामों से पुकारें
नाभि में अमृत का पता और दुश्मनों को हमले का सही वक़्त
अपने ही बताते हैं
अपनों की दगाबाजी का कालाचिट्ठा मत खुलवाओ
नहीं तो सब बेनकाब होंगे
चाहे धर्मराज हों
चाहे योगीराज
नरो मरो या कुंजरो की गफलत
किसी अजनबी ने नहीं पैदा की थी
यह भ्रम
धर्म और विश्वाश के दो वटवृक्षों ने रचा था
जिन्हें द्रोण
अपना समझते थे
जिन्हें विश्वस्त मानते थे
मैं पूछता हूँ
फिर आगाह करने वाली शुभचिन्ताओं में
फिर सतर्क करने वाली इबारतों में
अपनों से सावधान रहने के लिए क्यों नहीं कहा जाता?
जान पहचान और भरोसे के लोगों पर
अविश्वास क्यों नहीं जताया जाता?
कहीं हम सब मिलकर अजनबियों के खिलाफ
कोई खेल तो नहीं खेल रहे?
कहीं उनके सिर अपने कुकर्मों का ठीकरा फोड़
अपने और अपनों को बचा तो नहीं रहे?
वक़्त आ गया है कि जोर जोर से दोहराया जाए
अपनों कि वजह से हुआ था महाभारत
एक बूढ़े महात्मा कि बेजान छाती पर
अपनों ने ही उतारी थीं तीन दनदनाती गोलियां
इसलिए अजनबियों का सिर झुकाकर
अपनों का सिर ऊँचा उठाने की हम
ये लिजलिजी कोशिश बंद करें
इतिहास हस्तिनापुर की महारानी गांधारी नहीं है
जो आँखों में ताउम्र पट्टियाँ बांधें रहेगा