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अजन्ता मिल गई / राजेन्द्र प्रसाद सिंह
Kavita Kosh से
नुकीली चट्टानों की वही
अबूझ परम्परा;
फिर भी कैसे मुझे अजन्ता मिल गयी!
रंग लिये अवनीद्रनाथ के
यों महारथी की रेखाएं जी उठी,---
लिये मीर के टाँके जैस—
ग़ालिब के पैरहन,--ग़ज़ल कोई उठी,
लड़कपन में जो लूसी ग्रे
अचीन्ही खो गयी;
वही लौट, साकार सिहन्ता मिल गयी!
बदला स्वाद समय का, जैसे
चंडीगढ़ के भवन, नये माहौल में,-
ज्यों रविशंकर का सितार हो
बजा रहा मधुवंती रौक –एन-रौल में!
रामकिंकर की मूर्ति-कला
मन में जो तोड़ती,--
कैसे वही अटूट अवन्ता मिल गयी!
नाटक हुआ स्वभाव कि जैसे
संसद में अभिनय हो पृथ्वीराज का,
फर्जी हुआ विरोध कि जैसे
जुगलबन्द गोदई-किशन महराज का!
उदय शंकर मशीन-नर्त्तन से
जिसे पुकारता;
वही वर्ग चेतना नियन्ता मिल गयी!