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अजस्र है दिन का प्रकाश / रवीन्द्रनाथ ठाकुर

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अजस्र है दिन का प्रकाश,
जानता हूं एक दिन
आँखों को दिया था ऋण।
लौटा लेने का दावा जताया आज
तुमने, महाराज!
चुका देना होगा ऋण, जानता हूं,
फिर भी क्यों संध्या दीप पर
डालते हो छाया तुम ?
रचा है तुमने जो आलोक से विश्व तल
मैं हूं वहां एक अतिथि केवल।
यहाँ वहाँ यदि पड़ा हो
किसी छोटी-सी दरार में
न सही पूरा
टुकड़ा अधूरा-
छोड़ जाना पड़ा अवहेलना से,
जहाँ तुम्हारा रथ
शेष चिह्न रख जाता है अन्तिम धूल में
वहाँ रचने दो मुझे अपना संसार।
थोड़ा सा रहने दो उजाला,
थोड़ी सी छाया,
और कुछ माया।
छाया पथ में लुप्त आलोक के पीछे
शायद पड़ा मिलेगा कुछ-
कण मात्र लेश
तुम्हारे ऋण का अवशेष।

कलकत्ता
3 नवम्बर, 1940