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अज़्म से अपने कभी जब मैं बड़ा हो जाऊँगा / विनोद प्रकाश गुप्ता 'शलभ'
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अज़्म से अपने कभी मैं भी बड़ा हो जाऊँगा
तुम अगर पूजोगे तो मैं देवता हो जाऊँगा
हाँ, मैं क़तरा हूँ मगर दरिया-सा घबराया नहीं
कौन कहता है समुंदर में फ़ना हो जाऊँगा
जिनसे मिलना तक गवारा था नहीं मुझको कभी
क्या पता था मैं ही उनका, हमनवा हो जाऊँगा
हाथ में अपने बनाऊँगा लकीरें अब मैं ख़ुद
और अपने आपका मैं आईना हो जाऊँगा
मुश्किलों के दौर में क़ौमें पलट देती हैं सब
क़ौम की तारीख़ का मैं हौस्ला हो जाऊँगा
चल पड़ूँगा जिस डगर पर, मुट्ठियाँ बाँधे हुए
मैं अकेला ही ‘शलभ‘ तब क़ाफ़िला हो जाऊँगा