अजीब ख़्वाहिश / राशिद जमाल
मैं चाहता हूँ
कि मेरा बेटा
जवान हो कर
किसी हसीना की काकुलों का असीर ठहरे
मिरी दुआ है
कि ये रिवायत न टूट जाए
उसे भी कुछ दिल की रहनुमाई में
ज़िंदगी को गुज़ारने का शरफ़ आता हो
मशीन उस को भी बन ही जाना है आख़िरश
बस दुआ यही है
कि मंतिक़ों और मस्लहत की
नपी-तुली ज़िंदगी से पहले
वो जी के देखे ख़ुद अपनी ख़ातिर
किसी की ख़ातिर
वो अपना आपा भुला के देखे
जो उस को मोहतात बन ही जाना है
अपनी नींदों के ज़िम्न में भी
तो चाहता हूँ
वो चंद रातें तो ठंडी आहों के साथ काटे
और इस से पहले
कि चाँद सूरज फ़क़त ज़रूरत की चीज़ ठहरें
वो नंगे पैरों सुलगती छत पर
खड़ा रहे इक झलक की ख़ातिर
वो चाँदनी शब में मुंतज़िर हो किसी परी का
ख़ुराक ही अहमियत का क़ाएल तो हो रहेगा
मैं चाहता हूँ
वो भूक के ज़ाइके़ से भी
आश्ना अगर हो
तो क्या बुरा है