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अड़तीसवें गणतंत्र दिवस पर / विमल राजस्थानी
Kavita Kosh से
मौत आयी तो कहा मैंने-रहम कर, रूक जा
आज गणतंत्र दिवस है, मैं मना लूँ तो चलूँ
धुँए से लाल हुई आँखें बरसना चाहें
माँ के आँचल में लगी आग, बुझा लूँ तो चलूँ
खून तो सिख का है, हिन्दू का लहू पानी है
अरे नादानो ! फकत यह तो बदगुमानी है
एक ही खून है, है एक धरा, एक गगन
दोनों की कटि से बँधी एक ही ‘भवानी’ है
चुने दीवार में दो बच्चे गये थे क्यौं कर
क्यौं बने सिख, ये कहानी मैं सुना लूँ तो चलूँ
देश के टुकड़े जो करने को हैं उनको रोकूँ
नीच जयचन्दों की टोली को डपट कर, टोकूँ
देश के दुश्मनों के पेट में खंजर भोकूँ
वतन को चाहने वालों में जिंदगी फूँकूँ
अपनी मिट्टी का तिलक माथे लगा लूँ तो चलूँ
देश की भक्ति के कुछ गीत बना लूँ तो चलूँ