भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अड़वो / कन्हैया लाल सेठिया
Kavita Kosh से
करसो सूतो हू’र नचीतो
अड़वो खेत रूखाळै।
इयां बैम स्यूं दिन दोपारां
फट बिसवास ठगीजै,
आंख्यां देखी इसी साच के
कोनी झूठ कहीजै ?
संसो मारै भूख एक नै
तो दूजै नै पाळै।
करसो सूतो हू’र नचीतो
अड़वो खेत रूखाळै।
हांडी लकड़ी पूर बणायो
मिनखां रो उणियारो,
झूठ साच तो खेल अकल रो
मुरख पकड्यो लारो,
हिया फूट बै जका बापड़ा
बंधी लीक परा चालै,
करसो सूतो हू’र नचीतो
अड़वो खेत रूखाळै।
समझदार बो जको न ढांचै
रै डांचै में पड़सी,
मार कांकरो जड़ चेतण रो
झट पितवाणो करसी,
काढ़ै नूंई कळा, न चाळै
बो घाल्योड़ै ढ़ाळै।
करसो सूतो हू’र नचीतो
अड़वो खेत रूखाळै।